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मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ही है इसका पहला इलाज

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ही है इसका पहला इलाज
  • विश्‍व मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य दिवस पर क्लिनिकल साइकोलॉजिस्‍ट आस्‍था शर्मा से खास बातचीत

शैलेंद्र सिंह

आजकल की भागमभाग में लगभग हर इंसान अनियमित जीवनशैली अपनाए हुए है, जिससे तनाव (स्ट्रेस) उसके जीवन का अंग बन चुका है। यह तनाव काम के दबाव के रूप में हो, पैसों की चिंता, मन की उलझनें या कोई और वजह से हो सकता। इस तनाव के साथ ही चिंता, अवसाद, मन की थकान और उदासी जैसी समस्‍याएं भी घर-घर पहुंच रही हैं। ये तकलीफें गंभीर होकर मानसिक विकारों में बदल जाती हैं और सुसाइड तक का कारण बनती हैं।

इस समय पूरे विश्व में मानसिक रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। यही कारण है कि मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) हर साल 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाता है। इस अवसर पर क्लिनिकल साइकोलॉजिस्‍ट (पूर्व कंसल्‍टेंट साइकोलॉजिस्‍ट, मूलचंद हॉस्पिटल दिल्‍ली और चंदन हॉस्पिटल लखनऊ) आस्‍था शर्मा से मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष चर्चा की गई। पढ़िए इस खास बातचीत के महत्‍वपूर्ण अंश:

सवाल: मानसिक स्वास्थ्य क्या है? यह कैसे प्रभावित होता है?

जवाब: मानसिक स्वास्थ्य को अगर हम आसान भाषा में समझने की कोशिश करेंगे तो जो हमारी एबिलिटी होती है डे-टू-डे चैलेंज को इफेक्टिवली हैंडल करने की, उसमें मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित चीजें आती हैं। जैसे- हमें कोई क्रिटिकल फीडबैक दे रहा है, हमारी कोई कमी बता रहा है तो हम उस जानकारी को कैसे प्रोसेस कर रहे हैं। अगर हम किन्‍हीं नकारात्मक विचारों से प्रभावित हैं तो हम उनको रोजमर्रा के जीवन में कैसे उतार रहे हैं, क्या हम उन्हें हैंडल कर पा रहे हैं या नहीं। हम अपनी लाइफ के सो कॉल्ड फैलियर्स को, दूसरों को जो हमसे अपेक्षाएं हैं, उनको कैसे हैंडल कर रहे हैं यह सारी बातें जो हैं, एक तरीके से हमारे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।

सवाल: मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक क्या हैं?

जवाब: मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों में सबसे पहले है हमारी जीवनशैली। इसमें हमारी नींद, खानपान, एक्सरसाइज, क्या हम कुछ क्रिएटिव एक्टिविटीज में पार्टिसिपेट कर रहे हैं डे-टू-डे लेवल पर या नहीं, हम अपने आप को कितना समय दे रहे हैं, खुद का ध्यान दे पा रहे हैं या नहीं, हमारा दोस्‍तों के साथ या आसपास के लोगों के साथ उठना-बैठना, मेल-मिलाप, बोलचाल है या नहीं और समाज के लिए हम कुछ कार्य करते हैं या नहीं जैसे प्‍वाइंट्स शामिल हैं।

वहीं, कुछ बायोलॉजिकल फैक्टर भी होते हैं, जैसे- कभी-कभी मस्तिष्क में कुछ हार्मोंस, कुछ न्यूरोट्रांसमीटर का बढ़ या घट जाना भी हमारे मन को प्रभावित करता है। इसके अलावा पर्सनैलिटी ट्रेट्स भी होते हैं, जो ट्रिगर कर सकते हैं। कुछ लोगों में गुस्सा जल्दी आना, आक्रामक व्यवहार होना, रिस्की बिहेवियर की तरफ अट्रैक्‍ट होना, नशे वाली आदतों की तरफ ज्यादा झुकाव होना, भावनात्मक रूप से संतुलन न होना जैसे बहुत से ऐसे पर्सनैलिटी ट्रेट्स हो सकते हैं, जो किसी व्‍यक्ति को इस बीमारी की तरफ ले जा सकते हैं।

सवाल: किसी का मानसिक स्वास्थ्य खराब है, इसकी पहचान कैसे करें?

जवाब: मानसिक स्वास्थ्य खराब होने की सबसे पहली निशानी है हमारे मन का उचटने लगना। जैसे कि पहले जिन कामों को करने में मजा आता था, अब उनमें हमारा मन नहीं लगेगा। चिड़चिड़ापन होना। जो हमारा बेसिक नेचर है, सबकुछ उसके उलट हो जाना। अगर हम स्कूल या कॉलेज जाते हैं या काम पर जाते हैं तो वहां हमारे काम में गलतियां होने लगेंगी, हमारा अटेंशन और कंसंट्रेशन प्रभावित होने लगेगा। हमारी नींद प्रभातिव होने लगेगी, भूख कम या ज्यादा लगने लगेगी और रिश्तों में भी दिक्कतें आने लगेंगी, जिससे अक्सर लड़ाई-झगड़े जल्दी-जल्दी होने लगेंगे। अपने मन की बात या तो बता नहीं पाएंगे या फिर ठीक से नहीं बता पाएंगे। ऐसी ही बहुत से व्यावहारिक चीजें हैं, जिससे हम समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति मानसिक समस्या से जूझ रहा हो सकता है।

हालांकि, इस बात का भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जो भी लक्षण बताए गए हैं, यह कुछ समय तक उस व्यक्ति में मौजूद रहें। क्योंकि, यह तो ऐसे सिम्टम्स हैं, जो कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में कई बार ऐसे भी दिख सकते हैं कि आज मन उदास है, खेलने जाने का मन नहीं है, किसी से मिलने का मन नहीं है। लेकिन, अगर इस तरह के सिम्टम्स कुछ लंबे समय तक रह जाते हैं तो यह निश्चित रूप से मानसिक बीमारी की तरफ इशारा करते हैं।

सवाल: मानसिक स्वास्थ्य में सुधार या इसे ठीक कैसे करें?

जवाब: मानसिक स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए सबसे पहले जरूरी है कि इसके प्रति जागरूकता होनी चाहिए। हम अपने शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर तो सचेत रहते हैं और शरीर में किसी भी प्रकार के दर्द या परेशानी होने पर तुरंत डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं, लेकिन उतने ही जागरूक और केयरफुल अपने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर नहीं होते हैं। अगर हमारा मन उदास है तो उसके लिए कोई भी किसी से बात करने के लिए समय नहीं निकलता है, बल्कि अन्‍य काम ज्यादा जरूरी समझता। अगर हमारा बच्चा पढ़ने में ग्रेड नहीं ला पा रहा है या किसी पार्टिकुलर सब्जेक्ट में दिक्कत महसूस कर रहा है तो हम उसे डांटने में ज्यादा विश्वास रखते हैं, क्योंकि हमें लगता है कि बच्चा पढ़ना नहीं चाह रहा है, इसके बजाय कि उसे कहीं कोई और दिक्कत तो नहीं है।

यह बहुत से ऐसी समस्याएं हैं और एडिक्शन हैं, जैसे कि मान लीजिए हमारे घर में किसी व्यक्ति को ऐसी परेशानी है तो समाज क्या कहेगा, कैसे किसी मनोचिकित्‍सक के पास दिखाने ले जाएं, चार लोगों को पता चलेगा तो हमारे घर के सदस्‍य की इमेज खराब हो जाएगी। इस तरीके की जो बातें हैं, ये बातें हमारे मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सहायता लेने में अवरोध उत्पन्न करती हैं। बल्कि, इन्‍हीं बेड़ियों को तोड़ते हुए, ऐसे किसी भी शख्‍स का साथ देते हुए किसी भी साइकोलॉजिस्‍ट, साइकेट्रिस्‍ट के पास ले जाना चाहिए और उससे उचित परामर्श और उपचार लेना चाहिए।

सवाल: मेंटल हेल्थ, सेरेब्रल पाल्‍सी और एसपीडी से जुड़ी बीमारियों में काउंसलिंग का योगदान और काउंसलिंग पर ट्रीटमेंट कितना आधारित रहता है?

जवाब: सेंसरी प्रोसेसिंग डिसऑर्डर (एसपीडी) एक तंत्रिका संबंधी विकार है, जिसमें मस्तिष्क संवेदी जानकारी को समझने और उस पर प्रतिक्रिया करने में कठिनाई महसूस करता है। इससे व्यक्ति या तो बहुत अधिक संवेदनशील (अतिसंवेदनशील) या बहुत कम संवेदनशील (अल्पसंवेदनशील) हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप सामान्य दैनिक अनुभव भी बहुत भारी और असहनीय हो सकते हैं। इसमें बच्चों में जैसे ऑटिज्म होता है और वे जो कई बार सेंसेशन ऑफ टच होता है, छूना, स्मेल करना या देखना यह सब प्रोसेस में कहीं ना कहीं मात खाते हैं। इन बच्चों को दिन में दिक्कत होती है, तेज आवाज को प्रोसेस नहीं कर पाते हैं, परेशान हो जाते हैं। अगर कोई छू लेता है, जिससे वह अवगत नहीं हैं तो वह टच को ठीक से प्रोसेस नहीं कर पाते हैं तो इस प्रकार की जो बीमारियां हैं, उनके लिए बहुत स्पेशलाइज्ड इंटरवेंशन बने हुए हैं और एक्सपर्ट मौजूद हैं, जिनसे पेरेंट्स को जल्द से जल्द हेल्प लेने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि, जितना जल्दी इंटरवेंशन शुरू होता है, उतने ज्यादा फायदे होने के चांसेस होते हैं।

अब आते हैं विश्‍व मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य दिवस पर तो मैं सभी लोगों से आग्रह करती हूं कि अपनी समस्याओं, अपने-अपने कनफ्लिक्ट, प्रॉब्लम को लेकर अकेलापन महसूस ना कीजिए, बल्कि उस समस्या के निवारण के बारे में सुझाव लेने के लिए उसके बारे में खुल कर बात कीजिए। बहुत जरूरी है कि हम एक मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट को एप्रोच करें। साइकोलॉजिस्‍ट, साइकेट्रिस्‍ट से मिलें। इसमें काउंसलिंग की भूमिका महत्वपूर्ण बहुत होती है, क्योंकि काउंसलिंग सिर्फ बातचीत नहीं है, जैसा कि अमूमन लोग समझते हैं। काउंसलिंग थेरेप्यूटिक है। चूंकि, यह थेरेपी एक मनो चिकित्सक की गाइडलाइंस से शुरू होती है, जिसमें जो भी पेशेंट मनोचिकित्सक के पास जाता है और काउंसलिंग कराता है तो उसकी बीमारी का स्वभाव क्या है, स्वरूप क्या है, इस बीमारी का इलाज कैसे होगा, क्या दवाइयों की जरूरत है या इसके बिना भी काम चल सकता है और अगर दवाई चलानी है तो कितने दिन चलानी पड़ेगी, लाइफस्टाइल में क्या बदलाव लाने की जरूरत है, इन सब मुद्दों पर डिस्कशन होता है। ऐसे में मुझे लगता है कि मानसिक बीमारियों काउंसलिंग की बहुत ज्यादा जरूरत है और आप जरूर जाएं, जरूर बात करें, अपनी इस लड़ाई में अपने को बिल्कुल अकेला मत महसूस करें और अपनी खामोशियों के चक्रव्‍यूह से बाहर निकलें।

सवाल: मनोचिकित्सक और पागलों के डॉक्टर के बीच समानता की अवधारणा के नुकसान क्‍या हैं और इसे कैसे दूर किया जाए?

जवाब: यह अवधारणा आज से नहीं बल्कि काफी सालों से चली आ रही है, जिसमें कोई भी ऐसा व्यवहार करता था, जो सामाजिक मापदंड से परे था, उससे वह व्यवहार अपेक्षित नहीं था, जैसे कि कपड़े पहने बिना बाहर आ जाना, सड़कों पर जोर से बोलना, इस तरह की आवाज निकालना जोकि अपेक्षित नहीं थीं, मारने-पीटने जैसी हरकतें करना तो यह एक अवधारणा सी बन गई थी कि या तो इस पर कोई भूत प्रेत बाधा हो गई है या फिर इसे पागलपन का दौरा पड़ रहा है, अब इसे पागल खाने में भर्ती करना है। मगर, मुझे लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में इस सोच पर काफी काम हुआ है और इस सोच में काफी हद तक बदलाव करने में भी सफलता मिली है।

इस तरह के लक्षण हमेशा पागलपन में नहीं होते हैं, बल्कि बीमारी के लक्षण होते हैं, जिसका इलाज संभव है। यही बात बताने के लिए मेंटल हेल्थ फील्ड में जितने लोग कार्यरत हैं, उन्‍होंने भरसक प्रयास किए हैं और कर रहे हैं। इसकी वजह से कुछ बदलाव जरूर आए हैं और मुझे लगता है कि यह बदलाव पूरी तरह से तब तक नहीं आ सकते हैं, जब तक सिर्फ एक्सपर्ट इंवॉल्व होंगे और सामाजिक लोग नहीं। इस अवधारणा में बदलाव के लिए समाज के हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी पड़ेगी। अगर हम अपने आसपास के किसी व्यक्ति में इस तरह के लक्षण देख रहे हैं तो हम उसकी मदद करें, उसको गाइड करें कि वह कहां से मदद ले सकता है। उसको इस तरह की नजरों से ना देखें कि वह विचित्र प्राणी है और उसको सांत्वना की जरूरत नहीं है। उसके परिवार को ऐसी नजरों से ना देखें कि जैसे उन्होंने कुछ गलत कर दिया है। मुझे लगता है कि इन सारी चीजों को सामाजिक तौर पर बदलने की जरूरत है और धीरे-धीरे सारी भ्रांतियां अपने आप खत्म होती जाएंगी।

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