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दिव्यांगता को न बनने दें मजबूरी, समाज में जागरूकता को बढ़ाना सबसे जरूरी

दिव्यांगता को न बनने दें मजबूरी, समाज में जागरूकता को बढ़ाना सबसे जरूरी
  • -अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस (आईडीपीडी) विशेष

अभिषेक पाण्डेय

लखनऊ। दिव्यांगता को समाज में आज भी एक कलंक के तौर पर देखा जाता है। भारत सहित पूरी दुनिया में दिव्यांगों की आबादी कहीं न कहीं चिंता का विषय है। हालांकि, शारीरिक दिव्यांगता के खिलाफ जंग का बिगुल जरूर फूंका गया है, जिसमें काफी हद तक भारत की स्थिति सुधरी है। मगर, मानसिक दिव्यांगता आकंड़ों को देखने के बाद चिंता और बढ़ जाती है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी की गई चेतावनी के अनुसार, दुनियाभर में, सात में से कम से कम एक किशोर-किशोरियां मानसिक विकार के शिकार हैं। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के मामले पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ते हुए देखे गए हैं, विशेषतौर पर कोरोना महामारी के बाद से इसकी दर में और भी बढ़ोतरी आई है।

चिंताजनक स्थिति से जूझ रहा भारत!

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, यह बड़े खतरे के रूप में उभरती समस्या है, जिसके बारे में सभी लोगों को जागरूक होना जरूरी है। मानसिक स्वास्थ्य की समस्या के कारण शारीरिक स्वास्थ्य का जोखिम भी बढ़ जाता है। दुर्भाग्यवश भारत में अब भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों में कलंक की भावना है, जिस कारण ज्यादातर लोगों में इसका समय रहते निदान नहीं हो पाता है। देश में बढ़ते मानसिक रोगों के खतरे को लेकर हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) जयपुर के अध्ययनकर्ताओं ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इसमें कहा गया है कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए स्व-रिपोर्टिंग दर काफी कम है। इसका मतलब है कि लोगों को इसके लक्षणों को पहचानने और खुद से निदान-इलाज के लिए जाने की दर कम है, जोकि निश्चित ही चिंताजनक है।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे अधिकांश भारतीय

दुनियाभर में चाहे कोई भी क्षेत्र हो, हर जगह लोगों में प्रतिद्वंद्विता की भावना बढ़ी है। ऑफिस वाले लोगों में गला-काट प्रतियोगिता तो रहती ही है, यहां तक कि स्टूडेंट्स भी एक-दूसरे से आगे बढ़ने के प्रेशर को झेलते रहते हैं। अगर सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की संख्या कम है तो भी लोग बेचैन हो जाते हैं। यही प्रवृति इंसान के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करती है। अधिकांश लोग किसी न किसी वजह से मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे हैं। हाल ही में लेंसेट पत्रिका की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में हर सात में से एक भारतीय किसी न किसी तरह से मानसिक रोगों से पीड़ित था।

तनाव और डिप्रेशन से परेशान रहने वाले ज्यादातर लोग वे शहरी युवा होते हैं, जो कॉरपोरेट जगत में काम करते हैं। इस कारण सन् 1990 के बाद भारत में सभी तरह के मानसिक बीमारियों से पीड़ित मरीजों की संख्या दोगुनी हो गई है। चिंता की बात यह है कि अधिकांश लोग तनाव और अवसाद को गंभीरता से नहीं लेते। उन्हें लगता ही नहीं कि यह कोई बीमारी है। एक्सपर्ट का कहना है कि जिस तरह शरीर की बीमारियां होती हैं, उसी तरह मन की भी बीमारियां होती हैं। मन की बीमारियां जीवन की गुणवत्ता को बहुत खराब कर देती है।

मानसिक दिव्यांगता से पीड़ित बच्चों की सही संख्या मौजूद नहीं

बच्चों में मानसिक चुनौतियां बढ़ रही हैं, यह हम नहीं बल्कि आंकड़े बता रहे हैं। साल 2011 की जनगणना को ही देखा जाए तो देश में इसके शिकार बच्चों की संख्या चिंताजनक है। इसे रोकने को निरंतर जागरुकता और समय पर चिकित्सकीय पहल आवश्यक है। इस समस्या से निपटने के लिए मनोचिकित्सक और मानसिक परामर्श की कमी देखी जा रही है। ज्यादातर बच्चों को पांच-छः वर्ष के बाद इलाज के लिए लाया जाता है। कुछ अभिभावक मनोचिकित्सक, न्यूरोलॉजिस्ट, पीडियॉट्रिक न्यूरोलॉजिस्ट, शिशु रोग विशेषज्ञ तो कुछ गूगल की मदद से ऑटिज्म मानकर उसके उपचार के लिए स्थापित विशेष केंद्रों में जाते हैं। यही कारण है कि मानसिक दिव्यांगता से पीड़ित बच्चों की सही संख्या मौजूद नहीं है।

इसके अभाव में सरकार इनके पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था नहीं कर पाती है। इनके वास्तविक आंकड़े पता करना जरूरी है। जो चिह्नित किए जा रहे हैं, संख्या उससे अधिक है। चलने-फिरने, कम दिखने, कम सुनने, मूक-बधिर होने के बजाय मानसिक अक्षमता व्यक्ति को जीवन भर के लिए दूसरों पर निर्भर कर देती है। ऐसे लोग अपने रोजमर्रा के कामों जैसे कपड़े पहनने, बाथरूम या ब्रश करने, अपने निर्णय लेने समेत तमाम कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं। ऐसे में अभिभावकों के नहीं रहने पर उनका जीवन बद से बदतर हो जाता है। यह गंभीर समस्या है, जिस पर ध्यान देना होगा।

मानसिक स्वास्थ्य को नहीं दी जाती है तवज्जो

अक्सर हम शारीरिक बीमारियों के बारे में तो खुलकर बात कर लेते हैं लेकिन, जब बात मानसिक स्वास्थ्य की होती है तो इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है। मानसिक विकारों की बात करें तो डिप्रेशन, एंजाइटी, बाइपोलर डिसऑर्डर, ओसीडी, ईटिंग डिसऑर्डर, न्यूरो डेवलपमेंट डिसऑर्डर, डिमेंशिया, अल्जाइमर आदि तो हैं ही, लेकिन इनके अलावा भी बहुत से ऐसे मानसिक विकार हैं, जिनके बारे में समाज में कई तरह की भ्रांतियां हैं।

चिंता और अवसाद के मामलों में हुई 25% की वृद्धि

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा साल 2022 में जारी की गई एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 महामारी के पहले वर्ष में, वैश्विक स्तर पर चिंता और अवसाद की व्यापकता में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। महामारी ने युवा लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है और वे आत्महत्या और खुद को नुकसान पहुंचाने वाले व्यवहारों के जोखिम में असमान रूप से हैं। महिलाओं पर पुरुषों की तुलना में अधिक गंभीर प्रभाव पड़ा है और अस्थमा, कैंसर और हृदय रोग जैसी पहले से मौजूद शारीरिक स्वास्थ्य स्थितियों वाले लोगों में मानसिक विकारों के लक्षण विकसित होने की अधिक संभावना थी।

बचपन में ही मानसिक विकारों को पहचानना जरूरी: डॉ. तरुण आनंद

लखनऊ के पीडियाट्रिशियन डॉक्‍टर तरुण आनंद बताते हैं कि अगर अभिभावकों को सही समय पर सही जानकारी मुहैया करा दी जाए तो काफी हद तक बच्चों में मानसिक विकारों को सही किया जा सकता है। उन्होंने बताया, ‘टीकाकरण के दौरान या फिर रूटीन चेक-अप के दौरान जब भी मां-बाप बच्चे को हमारे पास लेकर आते हैं, उस वक्त हम डेवलपमेंटल माइलस्टोंस को चेक करते हैं। आसान भाषा में समझाएं तो बच्चे की मसल पॉवर, उसका बोलना, चलना, उसकी फिजिकल एक्टिविटीज को परखा जाता है। अगर थोड़ी बहुत भी दिक्कत नजर आती है तो त्वरित ही मेडिकेशन को फॉलो करने की सलाह दी जाती है। इसके साथ ही वैक्सीनेशन को लेकर भी जागरूकता जरूरी है, क्योंकि इससे कहीं न कहीं शारीरिक और मानसिक, दोनों ही दिव्यांगता से पीड़ित होने से बचाया जा सकता है।

पीडियाट्रिशियन डॉक्‍टर तरुण आनंद

मानसिक तनाव से बच्‍चों का जूझना चिंताजनक

लखनऊ में पिछले कई सालों से मरीजों को मानसिक विकारों से निजात दिला रहीं मनोचिकित्सक डॉ. पारुल प्रसाद कहती हैं, इन दिनों चिंताजनक ये है कि सात से आठ साल के बच्चे मानसिक तनाव की समस्या लेकर हमारे पास आ रहे हैं। चैलेंज ये रहता है कि बच्चों को मेडिसिन की बजाय थेरेपी से ठीक किया जाये। हालांकि, जहां जरूरत पड़ती है, वहां मेडिकेशन का ऑप्शन भी इस्तेमाल किया जाता है। लाइफस्टाइल मॉडिफिकेशन, डाइट और थेरेपी के माध्यम से बच्चों को उनकी समस्याओं से निजात दिलाने की भरपूर कोशिश की जाती है। हमारे सामने ये चैलेंज रहता है कि बच्चों को मेनस्ट्रीम में शामिल कराया जाए।

मनोचिकित्सक डॉ. पारुल प्रसाद

 

उन्‍होंने कहा, हमारा लक्ष्य है कि जैसे हम शारीरिक दिव्यांगता के खिलाफ जारी जंग में जीत स्थापित कर रहे हैं, ठीक वैसे ही मानसिक दिव्यांगता से भी देश को जीत दिलाएं। इसके लिए हम सीआरसी की टीम से जुड़े हुए हैं। जो भी बच्चे किसी भी प्रकार की मानसिक दिव्यांगता से जूझ रहे हैं, वे थेरेपी के माध्यम से ठीक किए जाते हैं। इसी माह हम एक सेंटर की भी शुरुआत करने जा रहे हैं, जिसमें न्यूरोडेवलपमेंटल डिसऑर्डर से जूझ रहे बच्चों का इलाज किया जाएगा।

दिमाग को स्‍वस्‍थ और तेज बनाए रखने के लिए भी सही डाइट जरूरी

आहार विशेषज्ञ श्रुतिका चौधरी बताती हैं कि आजकल फिजिकल हेल्थ पर ध्यान देने का ट्रेंड जारी है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को हर कोई दरकिनार कर देता है। हमारा मस्तिष्क, जो कि हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है, उसके स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष फूड्स की आवश्यकता होती है। मस्तिष्क को ऐसे खाद्य पदार्थों की आवश्यकता होती है, जो ने सिर्फ आपकी याद्दाश्त, ध्यान और उत्पादकता में सुधार करते हैं, बल्कि आपके शरीर की तनाव, चिंता और मूड को नियंत्रित करने में भी मदद करते हैं। हमारा मस्तिष्क शरीर के सभी कार्यों, प्रतिक्रियाओं, मूवमेंट, विचारों, संवेदनाओं, सांसों और दिल की धड़कनों के लिए जिम्मेदार होता है। इसके लिए मस्तिष्क को ईंधन की आवश्यकता होती है। यह ईंधन हमें उस भोजन से प्राप्त होता है जिसे हम खाते हैं। हम जो भोजन ग्रहण करते हैं, वह हमारे मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को प्रभावित करता है। विटामिन, मिनरल और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करने से मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ती है। हमारे मस्तिष्क का शारीरिक, बौद्धिक और भावनात्मक कामकाज हमारे खाने के प्रकार पर निर्भर करता है।

आहार विशेषज्ञ श्रुतिका चौधरी

सेहतमंद रहने के लिए हमारे दिमाग यानी ब्रेन का हेल्दी रहना भी बेहद जरूरी है। वो कहती हैं कि हम जो खाते हैं, हमारा शरीर भी वैसा ही बनता है। वहीं, हमारे शरीर को सही तरह से फंक्शन करने के लिए माइंड का हेल्दी होना काफी जरूरी है। इसलिए ऐसे फूड्स को डाइट में शामिल करें, जो ब्रेन फंक्शन को इम्प्रूव करें। इसके लिए प्रकृति ने हमें कुछ ऐसे फूड्स दिए हैं, जो दिमाग को स्वस्थ्य बनाए रखने या उनकी सेहत सुधारने में मदद कर सकते हैं।

शुरू हुई जन-जागरूकता अभियान की मुहिम

मानसिक दिव्यांगता के खिलाफ शुरू हुई जंग में आहुति डालते हुए लखनऊ के ‘द होप फाउंडेशन’ द्वारा संचालित ‘द होप रिहैबिलिटेशन एंड लर्निंग सेंटर’ की तरफ से पूरे साल (03 दिसंबर 2024 से 03 दिसंबर 2025) तक कैंप का आयोजन किया जाएगा। सेंटर के प्रबंध निदेशक दिव्यांशु कुमार ने बताया कि इस कैम्प के तहत कोई भी व्यक्ति या मरीज का फ्री असेसमेंट किया जाएगा। चार दिन की मुफ्त थेरेपी दी जाएगी। फ्री कंसल्टेशन दिया जाएगा। इस जन-जागरूकता अभियान के तहत समाज में ये सुनिश्चित किया जाएगा कि थेरेपी के माध्यम से मानसिक विकारों पार काफी हद तक जीत पाई जा सकती है। समाज को इस बात के लिए भी जागरूक किया जाएगा कि मानसिक दिव्यांगता लाइलाज नहीं है। सही जानकारी और सही इलाज के माध्यम से इससे जूझ रहे मरीज को ठीक कर समाज की मुख्य धरा से जोड़ा जा सकता है।

दिव्यांशु कुमार, अध्यक्ष, द होप फाउंडेशन

दिव्यांशु कुमार ने बताया, हम प्रोफेशनल थेरेपिस्ट की टीम के साथ इस मुहिम की शुरुआत कर रहे हैं। हमारा उद्देश्य यही है कि नई पीढ़ी को मानसिक दिव्यांगता और मानसिक विकारों से निजात दिला सकें। हमने यह भी नोटिस किया है कि मानसिक विकारों से जूझ रहे बच्चों को नॉर्मल स्कूल में एडमिशन मिलने में काफी दिक्कतें होती है। बच्चों का एकेडमिक भी सुचारू रूप से चलता रहे, इसके लिए हमने स्कूल रेडिनेंस प्रोग्राम भी चलाया है। ‘द होप ग्लोबल प्ले स्कूल’ इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। उन्होंने बताया कि द होप रिहैबिलिटेशन एंड लर्निंग सेंटर की स्थापना 10 फरवरी, 2020 को हुई थी। पिछले चार सालों से हमारा एक ही लक्ष्य है कि मानसिक रूप से पीड़ित जो भी बच्चा हमारे पास आ रहा है, उसे सही थेरेपी देकर मुख्य धारा से जोड़ा जाए। हमें बड़ी कामयाबी भी मिली है। 40 से ज्यादा बच्चों को हमने मेनस्ट्रीम से जोड़ दिया है। ये 40 बच्चे नॉर्मल स्कूल में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं और समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अब हमारा लक्ष्य है कि मानसिक दिव्यांगता के बढ़ते ग्राफ को कम किया जाए। हमारी रणनीति तैयार है और प्रोफेशनल टीम के साथ हम इस लक्ष्य को जल्द से जल्द हासिल कर लेंगे।

वैश्विक स्तर पर दिव्यांगों की स्थिति

  • संयुक्त राष्ट्र के अनुसार पूरी दुनिया में दिव्यांगों की आबादी 100 करोड़ (एक बिलियन) है।

  • दिव्यांगों की कुल आबादी का 80 फीसदी विकासशील देशों में रहते हैं।

  • स्वास्थ एजेंसियों के सर्वे के अनुसार, 60 और इससे अधिक आयु के 46 फीसदी लोग दिव्यांग हैं।

  • हर पांच में से एक महिला को अपनी लाइफ में दिव्यांगता का अनुभव होने का अनुमान है।

  • वैश्विक रूप से हर 10 बच्चों में से एक बच्चा दिव्यांग है।

  • 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की आबादी 121 करोड़ है और भारत में दिव्यांगों की आबादी 2.68 करोड़ है, जोकि कुछ जनसंख्‍या का 2.21 फीसदी है।

दिव्यांगता के प्रकार के आधार पर, भारत में दिव्यांगो की संख्या इस प्रकार है:

  • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (RPWD) 2016 से पहले, केवल सात तरह की दिव्यांगता को मान्यता दी जाती थी।

  • अधिनियम 2016 के तहत, अब 21 तरह की दिव्यांगता को मान्यता दी गई है।

  • एसिड हमलों से जुड़ी शारीरिक विकृति और चोटों को भी दिव्यांगता माना जाता है।

  • भारत में दिव्यांगजनों का 69 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है।

  • दिव्यांगो में 35.29 प्रतिशत लोग ही स्कूलों तक पहुंच पाते हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5)

  • 2011 की जनगणना के अनुसार, भारतीय जनसंख्या का 2.21% किसी न किसी रूप में विकलांग है, और उनमें से 2.7% मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं, और 5.6% मानसिक मंदता से पीड़ित हैं।

  • 0.93% आबादी दिव्यांग है और 5.11% घरों में एक या अधिक दिव्यांग सदस्य हैं। विभिन्न प्रकार की दिव्यांगता में, मानसिक दिव्यांगता दूसरी सबसे आम थी, जो सभी दिव्यांगताओं का 20.07%हिस्सा थी

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